सूखती रही कई कई नदियां

जीवन पी जाती है
कई कई नदियां
और मछलियां तड़पती हुई
दम तोड देती हैं

लहरों ने बचाई
कई कई बार
कई कई जिन्दगियां
बावजूद इसके
सिकुड़ती गई गंगा

उछल कर
गिरती रही मछलियां
और सूख गई सब नदियां !!

सरकार अब भी, क्या सोयी रहेगी ?

एक चिड़ियाँ आती है
और मुंडेर पर तकती सूनी आंखों को
सरकार की भाषा समझाती है

आंखें गंगा की तरह सूख जाने वाली है
सोयी हुई है सरकार
कब जगेगी
नगे धड़ो के लिये क्या?
सरकार अपने मुँह पर कालिख पोतेगी
या सिर के बदले सिर लायेगी

चेहरे की झुर्रियो में दर्द से कराहती
बची सांसो की चीत्कार छुपी है
क्या न्याय ?
अब भी आंख पर
पट्टी बांधकर सोयेगी!!

स्पर्श ...

एक दीप जलायें
चल तिमिर के पार चलें

वहाँ जन्में
जहाँ कभी हम
अस्तित्व में थे ही नही

स्पर्श
शब्दों का
खिलाकर करे
वो जमीन पैदा
जहाँ खुशबू ही खुशबू हो !