रोटी की गोल बाहों में सिमटें हुये है सब

रोटी की तरह गोल
दुख में
घुम रहे है कई तरह से वे
कोई सेकता है मानो
घण्टों रोटी

ठंढे चुल्हें पर
भुख भरने को
सिकती रही रोटी 
खाली डब्बे जैसा पेट में
जलती रही गोल गोल रोटी

गरम तावे पर चाँद सा
दिखता रोटी
चाँदी के कटोरे से
छलकता सपना
रोटी

बच्चों के ख्वाब में
दूध-भात लाता
गोल गोल मामा उजली रोटी
सुबह का सूरज
आस का गोला
रोटी

पत्थर तोडती माँ के
हाथों से रिसती
गोल रोटी
सडक के किनारे सोते बच्चों की
गोल आंखो से
टपकती रोटी
धूल से सनी
फटी आंचल में छुपी
ममता में डुबी गोल रोटी 

भूख के समंदर में
डुबता सूरज 
गोल रोटी
रात की गहराई में
लहरों की अंगडाई पर
मचलती फिर
वही रोटी!!!

उसके सीने की गहराई में

पिघलते और ठिठुरते पहाड
बडे अच्छे लगते 
उनका पिघलना इसलिये कि
वे विशाल होते ह्र्दय से
ठिठुरना उनका
प्रतिनिधित्व करता आम आदमी का

पहाड था जहाँ उसका पुर्नजन्म हुआ था
नितांत अकेला ,नि:शब्द,शुन्य पर ठहरा
चेहरे का सवाल ही न था
पहाड था और युग धाराशायी सामने उसके 

कई मौसम एक साथ
साथ साथ चले
गहरे पहाडी में उतरते हुये
जब सुरंगमई आवाज़
दोंनों के बीच गहराने लगी थी
चीखती सन्नाटों के बीच
थामना उसका हाथ
हिमखण्डों का एक साथ
कई विशाकाय आकार में जम जाना था

ऊंचाई उसका निराकार
जन्म लेने लगी
उडते भागते शब्दों और अक्षरों में
दरअसल वह ठंडी हवाओं के साथ
पर लगाकर उडती और
शिखर से वह चीर और धीर
अचल देखता उसे

सूरज की तपिश से जब वह पिघलता
परिंदें बेशुमार उडतें
उसके दर्द के गवाह होते
ठंडी हवायें उसके गले लग जमनें लगती
वह बेजुबान और निराकार इतना अपना था कि
उसे पता ही ना था कि
बर्फ का एक छोटा टुकडा
उसके सीने के गहराई में छुपा बैठा है
जो पिघलता और ठिठुरता है मौसमों के साथ साथ !!

जो हासिये पर नही जीते

दरअसल वह आसमान की आंख से
विसंगतियों पर पत्थर की तरह चोट करता
ऐसा जब जब करता था यकीन मानो
दोंनों जहाँ धुँआ धुँआ होता था  

उतना ही पढा उसने
जितना उसने सपनों को बुना था
जल में बनें महल की तरह लिखता  
बुलबुले की तरह आसपास बिखरता
छुते ही इंद्रधनुषी होता चमकता सतरंगी 

परिकथाओं से दूर कही
पहाडों की खोह में रहने वाले बच्चों की
दस्तान से भरी गीतों में सुरमई धुन हो
लकीरों से झांकती आंखों की चित्र खिंचता 
जड-जमीन को खोदता और कुछ सूखी जडें निकालता
बढता जाता सात समन्दर  

चाय की दुकानों पर काम करने वाले
छोटूओं के माँ-बाप पैदाईशी ही लुले-लंगडे होते  
उनके घरों में भूख सेंकने के लिये
हाथ पैदा करना होता था काम
और कच्ची उम्र का मेहतना
पेट की आग पर पानी बन बरसता
ऐसे में वह रुई से पानी निचोंडता 
रुखे और सूखे दर्द पर फेरता हाथ कुछ ऐसे कि
गंगा भी हिमालय से फुट पडती
जो आजकल सूखी पडी है कही

संस्कार दुनिया का
तोता बनाना
और भेंड चालवाले पिंजडों में कैद करना 
तोतों को
है ना मुनाफे का सौदा
जो हासियें पर नही जीते
उन्हें पिंजडो का सौदा करना अच्छी तरह आता !!

गर जल गया कोई दीया तो मशाल बन जायेगा

तू बदल दे
चाहे अपनी जुबान
चिराग जलाये बैठे है
लौटना होगा उन्हें
हर हाल में
सूरज
शब्द शब्द कविता में
सुबह बन उग जायेगा 

मासूमों की चीख को
तू चाहे अनसूना रख
अब तो जर्रे जर्रे से कोई
इन्कलाब का मंत्र गुंजेगा 

एक अंधेरा हर तरफ
खोने का सबब बना रहा
घने जंगलो की बीच से ही
कोई आग जलेगी

अंधेरा घना
आस का दीपक
टिमटिमाता हुआ
सच है कि तू
मिशाल बन जायेगा

पत्थरों पर टुटते 
हाथ मासूमों की
तपिशभरी तेरी कविता से
पहाड
मोम की तरह पिघल जायेगा

गर जल गया कोई दीया
तो मशाल बन जायेगा !!

यह प्रेम ही तो है

यह प्रकृति का
प्रेम ही है कि
शाम
मंदिर और मस्जिद पर
समान रौशनी से आती है

रात भी दोनो को
साथ साथ गहरे उतारती है
चाँद
दोनो का एक ही होता है
तारो से भरे आसमान को
दोनो साथ साथ ओठते है

सुबह का सूरज भी एक ही होता है
और इसतरह सबको एक-दूसरे जोडती है



एक मुठ्ठी धूप में सूरज तन्हा

एक मुठ्ठी धूप में
सूरज तन्हा
आसमानी कंचन-किरणवाला
सबेरा
सूरजमुखी जैसा

ठंडी हवाओं में
पत्तियों की सरसराहट से होकर
गुजरती सांसे
बेआवाज
सन्नाटों पर फैला
पानी सा इक छुअन

पलकों पर सोया समंदर
और उसके गहराई में
डुबता नीला आसमान
तारों से सजी रात
तन्हाई से बचाती हुई चाँद को
टांकते जाती शब्दो से
रौंशन मुखडा को
टिमटिमाते अक्षरों से

वक्त के हाँडी मे
पकता महीन सेवईयाँ
जिसे हमसब को खाना होता है
खींच-खींचकर
पर दूँज की तरह मीठा नही होता

बेरोक-टोक चलती है घडियाँ
जिसके ऊपर
घोडे भी दौडते है
पर बिना लगाम
वे माँ की हाथ के तरह
खुबसूरत नही होते !!

कुछ सामान था जो सफ़र में छूट गये कही

शाम के धुंधलके में
उसने परिंदो को सिद्दत से देखा
सभी लौट रहे थे
बदलियों के पीछे से आती लाल रौशनी
रातरानी से लिपट रही थी

झरने के सुमधूर लय ताल के साथ
कई-कई नदियाँ एक साथ बहे जा रही थी
आसमान मुस्कुराते हुये
तारों को एक एक कर
चांदनी के आंचल पर टांकता जा रहा था
चांद सागर से मिलन की चाह लिये
छ्लकता रहा रातभर

उसने जमीन और आसमान को
आंखो में कैद कर लिया
गोल मोतियों को
दफन कर पृथ्वी के सीने में
हरी घासों में लहलहाती रहीं वह
हिरणों के नन्हें पाँव कोमल जो थे

सूरज उसके अर्श और फ़र्श  में
कही खो सा गया था
कुछ सामान थे जो
सफ़र में छुट गये कही !!