आनाथ कदमों की सिसकियाँ

धुंध के अंदर है
सबकुछ घुमता हुआ
अस्पष्ट कदम
कुछ भी नही स्पर्श सा

टटोलते हुये
खुद को सम्भालते हुये 
अनाथ कदमों की
सिसकियाँ नही थमती

अजनबीपन
एहसास से भरा
हर एक सांस
खत्म होती हुई
 
सुबहें डुबती हुई
सूरज
उगाये थे कभी
हथेलियों पर
बडे आरमान से

प्यास
अंधेरे में चलते हुयें 
रौशनी तलाशती है
पर छिन लेता है वह
और खरोच देता है
जिस्म को
हर दफे वही से !!

जंगल को शायद कभी बचाया जा सकेगा

जडें जल रही है उन जंगलो की
जहाँ हिंसक जानवर नही रहते 
जीवन वैसे ही उगता है वहाँ जैसा बोया गया है
बडी निर्ममता से काटे जा रहे है जंगलो को
और जलने तक छोडा भी

वक्त गाडी की पहियों पर सवार चौतरफा 
थकान से रगों में लहू ठंडी
बढते रफ्तार में ठहराव को विस्तार नही मिला 
और भागते हुये जीवन में
सपना आकाश से लटकता हुआ एक फल और 
पकने का इंतजार सबको रहा है अबतक

किसी गाँव के बगीचे से आती खुशबू और
चिमनी के धूँये में मजदूरो की जलती आंत से
आती बू से आइने धूँधलाने लगे है
वक्त के साथ मिट्टी भी जमीन छोडने  लगी है 
और ठिठूरती सर्दी में गरीबी का पलता सपना कि
सुदूर गाँव से उठने वाला आग
थोडा गर्मी पैदा करेगी
तब कुछ दिन ठीक ठीक बितेंगा 
और गाँवों में हिरण और मोर भी आयेंगे
खुब खुब ईद और दिवाली होगा

पर वो आग जो बुझता ही नही
ग्लेशियरो के पिघलने जाने से
जलन में पैदा राख से आंधी फैलने का दबाव
मौसमों पर बढता जा रहा है 
कुर्सियाँ अपनी जगह पर खुब सुरक्षित है
जमीनी हकीकत से दूर
लहलहाती घासों पर बैठी हुई
और उनकी नींद गहरी   

चलते हुये लोगो में
चेहरे पर विवशता और आंखों में
गहराई लिये हुये भाव ऐसे बैठे है कि
तंत्रो की तंत्रिकाओ में
तंतुओ से बेबसी दौड रही है
और निराशा गतिशील तंतुओ पर सवार हो
सम्प्रेषित कर रही है खौफ और डर 
तलाश भी रही है उम्मीद
पर जिसके जल जाने का अंदेशा निरंतर बना हुआ है
तमाम अश्वासनों के बावजूद 

जंगल को शायद
कभी बचाया जा सकेगा !!

तू बहता रहा हर कही

कौन कहता है कि
तुझे याद नही 
पंक्षियो को उडाना हैं खेतो में
मेढो से लगकर
रोकना है पानी के उन धारो को
जो पिता के खोदी जमीन से बहती थी    
 
प्यास उपजती थी
खेतों में उनदिनों
और अन्न मेहनत जैसा था  
पर आज सुखता जाता है
कुँआ भी हर जगह
तुम भागते तांगो के पीछे
छूटते शहर और गाँव के निशानों पर
लिखते रहे चने जैसा कुछ
गरीबी की भूख मिटती रही  
 
अंतरिक्ष में घुमते पिंड खिसकते रहे
और जगह भी बदलते रहे
उनके बदलाव के कारणों को
जानने के वास्ते तू
बैठा कुछ गिनता रहा

वक्त की मार से
पत्तियाँ गिरती रही शाखो से 
रुहें उडती रही
और स्याही बन 
फैलती रही पन्नों पर
अक्षरें नम मिलती रही  

तेरी खिंची चित्रों की जिस्म से
लिपटी रही लरियाँ यादों की  
वक्त की बेरुखी से
दफन होती रही गहरे
बांझ पृथ्वी के कोख में

तेरे अश्क
मिठे पानी के झील बनते रहे
शीतल करते रहे पसीजते हथेलियों को
जब भी दोपहर उमस खाती
तब रात डुबती रही
चाँदनी बनती रही

तू बहता रहा हर कही
पर देख तो सही !! 

वह बेटी नही ,माँ की ममता है

वह गंगा है
जो फुटकर
अपनी शीतलता का एहसास कराती
एक मासूम कली

जन्म लेने और
मरने से पहले
बोल पडी 

मत रोको
पहचानो उसे
बहने दो
कोई श्रोत है वह

सुखते दरख्तो में
ठूँठ शाखो पर
कोंपलों को तो आने दो
तपते जिंदगी को छाँव दो
ममता की मुरत को
आने तो दो !!!

तपते रेगीस्तान में परछाई

सांस भी कटते रहे 
टुकडा टूकडा
वजूद से
रुह की परछाई
इक धुँआ सा   
जिसपर पैर चलने लगते थे
बेतहाशा

थकती  नही 
लौटती आंखे
रख देती थी उम्मीद
अधूंरें ख्वाब का
कही किसी पहाडी के
कोख में  

सुफेद चादर पर
चंद अल्फाज़ बिखेरे पडे रहे
सदियों की भटकन 
फूलो की खुशबूओ में बंद रही

धूप है
उम्मीद है
किरणों सी तेरी बाते
भटकन है
तू कही नही  मिलता
स्पर्श में
पर
तू आग हैं
और मोक्ष !!

माँ की तरह रोती रही

बारिश ने खुब डुबोया आसमान
डूबते घरों के बीच से
आती चीखें
तिनकें से सहारा मांगने जैसा
ठूंठ पर बैठा परिंदा गवाह बना

भूखे पेट और नंगें बदन
छोटे बच्चों के बहती नाक पर
भिंनभिंनाती मख्खियाँ
और माँ का फटा आंचल
धरती के सीने पर
विचित्रतायें थी कई जगह पसरी हुई

डूबतें गाँवों में
परम्पराओं को सूखते देखती रही
भूख की आग पर
मिटती रही सम्वेदनायें
मसलन
जब पानी
पानी की तरह नही बहता था
साबुन नसलों को धोते हुयें
भूख के पतीले में
एक एक आग
जल जाती अन्न पर

और वह बैठी कोनें में
माँ की तरह रोती रही
जब भी किसी गाँव और शहर को
डुबते और जलतें देखती
गिडगिडाती  रहन्नुमाओं के आगे
बचा लो
गंगा और सीता को डुबनें से
दे दो भोजन जिंदगी को
दो जून की

वह भी जी ले
कथाओं और परम्पराओं की तरह
सुंदर हो ले
हिमालय से निकलकर
पवित्र भी
कोयल की कूक सी
थोडा मधूर भी !! 

छोटे रोशनदानों से रौशनी तेज़ और धारदार पहुंचती थी उनदिनों

सूना था देखा भी नही
बडे घरो में बिन खिडकियों के
छोटे रोशनदानवाले कमरों में
उडती चिडियों की कहानी

उनका निकलना
कितना कठिन था उनदिनों
दुनिया तो ऐसी ही थी
सुंदर हमेशा से

सूरज तो आसानी से पहुंच जाता
अपने नुकीली और धारदार रौशनी के साथ
छोटे रोशनदानो से होकर
प्रकाश पर नाचते थे
हवा में घुलें धूल भी
बडे आसानी से दिखते थे

सांस कैसी होती थी उनकी
कल्पना में
पंख टुटने जैसा दिखता था
नानी दादी की कहानियों से
वे पेट भरती थी
उर्जा उन्ही कहानियों से उन्हे मिलती थी
और दिनभर उडती

चक्की चुल्हें बर्तनों के बीच
खनकने जैसा हंसती थी वे
उनका खनखनाना दरवाजे तक नही पहुंचता था 
हाथियों के चित्रवाले दरवाजें होते थे उनदिनों

बडी काबिल थी वे
अपनी थकान पंखो पर
नही डालती थी
उनके अश्क हवा में ही सुख जाते

उडान में संचार का माध्यम
रोशनदान होता बाहरी परिंदो से
देश दुनिया की खबरें मिलती उन्हें
और वे आवाज़ से पहचानती थी उन्हें
उन बुत चिडियों की
आसमान बहुत सुनहरा था 

पर जितना आसमान खुला है आज
कही ज्यादा गहराई में धंस गया है 
पंख बोझिल है आज चिडियों की
उडने से पहले ही बिखर जाती है
बडें और जालीदार आसमान के बीच
आज सूरज दिखता है पहुंचता नही
मद्धम रौशनी के बीच
धुंधले चित्रो में
फंसे परिंदो की कहानी
अजब होने के साथ गजब भी है

पृथ्वी उतनी हरी नही आज
जितनी की छोटे रोशनदानों में हुआ करती थी
ईंट पत्थरों के घरों ने
हरे रंग की हरियाली को जला जो डाली है
उनका उडना जितना भी हो पर सुरक्षित कम
आकाशगंगाओं में खो जाने का खतरा भी ज्यादा है !!!