जहाँ सूरज डूबेगा

मजमा है
निराशा और आशा का
कस्बा में सुबह से ही 
चहल पहल बढ गई है

हवा पतियों पर झुल रही है
शाखो पर कोंपले
जाने पहचाने शक्लों से 
गुफ्तगू कर रहें है

ऋतुओं के आने का वक्त तय है
वे बेवक्त नही आती
सूरज शाम के आते ही डुब जाता
समंदर में
अंधेरे ढुंढ लेते तारों को
रात गहराने पर 

मजमा में आये लोग
कतार में है
उन्हे चलना है अभी
दूर तक 
जहाँ सूरज डूबेगा 
शाम का होना तय है !!!


आनाथ स्पर्श

तस्वीरों की सच खोजती दीवारें
बनावाटी सच पर मिट्टी की खुशबू
आसमान से बरसते अन्नाजों  पर
राजनीति के दाल का काला और महंगा हो जाना

बढते भूखे-नंगो की गंगा-जमुनी प्रवाह में
जीवन को तलाशती आंखें

पिघलती सांसो मे शीशें का घुलना
बिलखते सपनों में गहराते अंधेरें
माँ की लाठी से गुम होती आवाज

बढते लोगों की तदाद में
अकेलेपन की बाढ से झुलसती अपनापन

और आनाथ स्पर्श से डर का खत्म हो जाना !!

शिक्षा शहर हो चली थी और

वक्त के लगाम को
आसमान लिये फिरता 
जिसे छूना सभी चाहते
पर डोरी कटी हुई
कुछ उम्मीदों की सिर
ढँक जाती थी छतों से
पर आनाथ और बेबस हिचकियाँ
बिलखती थी सडकों पर और
घसीट दी जाती थी निर्ममता से

चाँद के बरसने के इंतजार में
लोगो का छत पर होना
इतेफाक नही चाहत थी
सुबह से शाम की दौड में
सभी थक जो जाते थे 

सुबह डुबकर आता था सतरंगी
पर आंखे थी कि खुलती नही
रंग चढते पर दीवार अंधेरे में थे 
मरने के अंदाज पर दुनिया फिदा थी
जीना जितना सलीके से होता
उससे कही ज्यादा मरना 

बहुत दिनो तक पहाड खोदते जाना
बिखरते भी किसी रेत की तरह
सोचो जब दरिया डुबोता हो
जमीनी हकीकत को एक एककर
परिश्रम के दिनो में
उंगलियों के कटते ही पसीने चलते
और तपिश पेट में सांप बनकर
ऐंठता था महीनों तक

गाँव बेचैन बैठा रहा शहर के दहाने पर 
घासे कटती रही मजलूम और बेबस हाथों से
फकीर की छडी थी कुर्सियों की ताकत
और बारुद तैयार की जाती थी  बेबसी की
शिक्षा शहर हो चली थी और
गरीबी विस्फोट !!

क्षितिज पर ख्वाब लिये बैठा रहा

घटते बढते चाँद सा
सलोना चेहरा और
आंखे जलते दो तारे
पूरे आसमान पर 
पंक्षी के उडते रहना और
माप लेना  उसका
सूरज चाँद 

उंचाई मापने वाले
गहरे भी उतरे
और
पाताल के किसी कोने में
पडे तडपते पिंजडे तक पहुंचे
यह जरुरी नही   

अंधेरो के पहरे में
कैद एक बुत 
जिस्म और जान के
पत्थर होने तक चुप 

बादलों को क्या पता
उनके बरस जाने के बाद
पानी कहाँ बहकर जाता 
किससे मिलता है और
किससे नही मिल पाता

उफनता ऐसा जैसे
डुबोता कई महासागर
किनारो से लगकर
धरती पर फैलता 
लहलहाती हरी घासों में

इक चाँद जो
सौंधी मिट्टी की गहराई को
मापने का ख्वाब लिये बैठा रहा  !! 


छोडता दोनो जहान पर एक निशान है वो

कई दिनो तक
उडता रहा धूये की तरह और
कई रातों के सिरहाने
बिठाया उसने ख्वाब को
कबूतर के सही पते पर 
पहुंच जाने के इंतजार में
 
गली और नुक्कड पर
अपने होने के यकीन में
लेकर फिरता कोई खत
मंजिल की तलाश में बना
मुसाफिर का चौराहा सा
एक शक्स

गली के सभी घरो पर
एक जैसा लिखा कुछ
बिन पता हुये जा रहे
खत के
एक एक अक्षर से
टपकता रहा वो
ढुंढ लिये जाने तक
बैठा रहा कुरेदता रहा जमीन   

भूख और सपने के
बीच के आग सा
होता धुँआ धुँआ
छोडता दोनो जहान पर
एक निशान है वो !!  

शाखों पर कोंपलें तो तेरी थी

रौशनी की उम्र थी शायद
जितनी छोटी उतनी देर से डुबती
यकीन घास सा हथेलियों पर 
छोटे  उम्र में
हवा सा फैला हुआ होता था वक्त
उम्र के साथ घटता बढता 

सभी जरुरी चीजें
मरती थी एक एक करके
परम्परा कायम सभी रखते थे
रौशनी हर शाम सच्ची
उन जरुरतों पर मरती थी
जिन्हें दफना दिया गया था पैदा होते ही 

ऐसी परिस्थितियाँ कि
गट्टर में गिरे होने जैसे थे अकेले
जहाँ बदबू बेशुमार थी और सब बहे जाते थे
पर सडतें कीडें से थे अकेले
सांसो में मरे हुये से बचे थे अकेले

हरा जितना गहरा दिखता
उतना नही रहा कभी भी
ऐसे पस मंजर में राख  उडता रहा
सुलगते रहे और आग दबाते  
सीने में कही 
साकारात्मक होना सिखते रहे बस

शब्दो पर यकीन लगाये
बैठा रहा वक्त
वे तो भटकन थे जंगल में 
रौशनी को वे खाते रहे पर
जो अब फैल गये थे
तेरी गलियो में 
किसी पेड से आदमी की तरह

सांसों की छाँव में
शाखो पर
कोंपले तो तेरी थी   !!

पगली बदली की बौराई अंखियाँ

सलवटो के बीच
फंसी रह गई थी कोई
खुशबू गुलाब सी
पर कई सफहों में
तलाशते हुये सांसों को
जुलाई का महीना दर्द बना

शहर और गाँव के बीच
कई छोटे छोटे शहर फंसे मिलते
इनके बीच डग भरती हुई गाडियाँ 
फुर्ती में
फडफडाती हुई उनके ऊपर के फुल पत्तियाँ
जिसमें छोटा बडा‌‌ शहर सवार होता
झुलते वर्तमान और भूत के बीच
कई यादें खिडकियों से झांकतें मिलते

बडी आसानी से धूल जाती है
कुछ यादें
गर्मी के तपतें दिनों के बीच 
जब कोई अपना
अपना होने पर पट्टी बांध लेता हो
ढेरों रुलाता हो गर्मी में बहतें पसीनें की तरह

कल  मिला
पत्थर तोडतें हुयें पाषाण की तरह
एक मौत ही नंगी रही हर जगह
बेंच दी थी अपनी आंखे
और कपडों को लगा दी थी आग उसनें
सुखा मिला जब भी मिला
जल गई थी शाखें

ना जानें क्यों और कब से
बस रही थी  बस्तियों 
हर दस कदम पर 
कौन सा मंतर चल निकला था कि
पास वाले दूर वालों से
ज्यादा दूर थे

मिटती पगडंडियाँ
लौटनें का इंतजार करती रही
सावन भादों सब मौंसम
आते जाते
पर पगली
बदली की बौंराई आंखियों में
सबके सब ठिठकें पडें मिलतें  !!

एक बुढि‌‌‌‌या कात रही हैं सुत

उम्र की सांझ ढल गई
तमाम रास्ते
चाक जिगर से
गाँव से दूर
नदी के किनारे 
एक बुढिया कात रही है सुत

गुजरे वक्त के
मौसमों ने
खुब कहर ढायें हैं
जल गयीं हैं जमीन और
आसमान के कई परतें
छांव कही खो गया है
और
वह कात रही है सुत

बेशुमार शोर के बीच
अश्क रिश्तों के बह चले है
और डुबने को है
लाज दहलीजों की
औंर
वह कात रही है सुत

अंधेरे में
जरुरतें दम तोड रही हैं
भूख और प्यास से
बिलख रहें हैं बच्चें नवजात
दीपक की बात्ति
कही खो गई हैं
औंर
वह कात रही है सुत

माँ के आइने में
जाने और पहचाने 
अक्स धुंधलाने लगे है
कभी हाँथो को
तो कभी आंखो को छूती है
झुर्रियों में वक्त का स्पर्श
अभी भी करवटें ले रहा है
और
वह कात रही है सुत!!!

छुटकी का तिरंगा

कुते भौंक रहे है
और वह घर में बैठे
उनके आवाजों के पीछे
दूर तलक भाग रही है

गौरैयाँ भी सुबह होने का आगाज़
मधूर चहक से कर रही है
और कौवें कानों में
खराश पैदा कर रहे है
सभी पंक्षी सूरज के किरणो से
लिपट लिपटकर गा रहें हो
मधूर गान

गारे सीमेंट और चूनें की दीवारों से
आती इनकी आवाज
रुदन सी लग रही है
शहर की हवा भी सख्त है
उंचे मकानों की तरह

एक परिंदा
लोहे की जालियों पर
बैठनें की कोशिश कर रहा है
उसके पंखो की फडफडाहट
अच्छी तरह से सुन पा रही हूँ
जालियों पर उतनी जगह कहाँ
जितनी की पेड के शाखो पर होती है

नींद से जगने की बातों पर
वह हमेशा से बिलखनें लगती है
सलाखो के बीच
नींद पडी हुई है छिली हुई सी
और ख्वाब जख्मी

अथक परिश्रम के बाद
परिंदा
बैठनें में असफल रहा
पैरो और परों को
घायल कर लिया है उसने 

टी.वी पर कुछ लोग
चिल्ला रहे हैं
वे दवा बनाना चाहते हैं
घुटनों के लिये
घर में बैंठे सभी लोग हाथ उठा रहे है
समर्थन में

छुटकी चिल्ला रही है
माँ नही सुनती रसोई में
माथा पोंछती है और
पतीले में कुछ पकाती है दिनभर
थक जाती तो याद करती है बचपन 
और उसे कलेजे से लगाती है

रोज सुबह ऐसे ही
पंक्षियों की आवाज आती है
कुछ पंख घायल होते है
जाली पर बैठने की चाहत में
जाली के अंदर से
छुटकी तिरंगा दिखाती है
और खिलखिलाती भी
माँ की आंखे डबडबा आई है
उसके गालों को थपथपाती है
आंखो में भर लेती है
बहुत सारा प्यार !!